प्रथम स्वाधीनता संग्राम की नायिका झांसी की रानी लक्ष्मी बाई, जिसने अंतिम सांस तक अंग्रेजों के विरुद्ध अपनी जंग जारी रखी, का जन्म 19 नवंबर, 1935 को वाराणसी में हुआ था. मराठी ब्राह्मण परिवार से संबंधित लक्ष्मी बाई का वास्तविक नाम मणिकर्णिका था, लेकिन सब उन्हें मनु के नाम से ही पुकारते थे. इनके पिता मोरोपंत तांबे बिठूर के पेशवा की राज सभा में काम करते थे. मनु जब चार वर्ष की थीं तभी उनकी माता का देहांत हो गया था. पेशवा ने मनु का पालन-पोषण अपनी पुत्री की तरह किया, वह उसे छबीली कहते थे. मणिकर्णिका की शिक्षा घर पर ही संपन्न हुई थी.
राज सभा में पिता का प्रभाव होने के कारण मनु को अन्य महिलाओं से ज्यादा खुला वातावरण मिल पाया. तात्यां टोपे, जो पेशवा के पुत्र को प्रशिक्षण दिया करते थे, मनु के भी सलाहकार और प्रशिक्षक बने. मनु ने बचपन में ही उनसे घुड़सवारी, निशानेबाजी, आत्म-रक्षा का प्रशिक्षण ग्रहण किया था.
वर्ष 1842 में झांसी के राजा गंगाधर राव नेवालकर के साथ विवाह करने के पश्चात मणिकर्णिका झांसी की रानी बनीं. विवाह के पश्चात उनका नाम बदलकर लक्ष्मीबाई रखा गया. वर्ष 1851 में झांसी की रानी लक्ष्मी ने एक पुत्र को जन्म दिया, जिसका नाम दामोदर राव नावेलकर रखा गया. अंग्रेजों के षड़यंत्र के कारण मात्र चार महीने की आयु में ही दामोदर राव का निधन हो गया. कुछ समय बाद गंगाधर राव ने अपने चचेरे भाई के बेटे आनंद राव को गोद ले लिया. हालांकि गंगाधर राव पुत्र वियोग के दर्द से उभर नहीं पाए जिसके चलते 21 नवंबर, 1953 को उनका देहांत हो गया. अठारह वर्ष की आयु में लक्ष्मीबाई विधवा हो गई थीं. उस समय अंग्रेजों की यह नीति थी जिस राजा का उत्तराधिकारी नहीं होगा उसके राज्य को अंग्रेजों के अधीन कर लया जाएगा. आनंद राव उनके दत्तक पुत्र थे इसीलिए उन्हें राजा का उत्तराधिकारी नहीं माना गया. अंग्रेजों ने लक्ष्मीबाई को 60,000 रुपए पेंशन लेकर किला छोड़ कर जाने का आदेश दिया.
1857 का संग्राम
वर्ष 1857 में यह अफवाह फैल गई कि भारतीय सैनिकों को जो हथियार दिए गए हैं उनमें गाय और सूअर की चर्बी का प्रयोग किया गया है. इस बात से भारतीय सैनिक अंग्रेजी सरकार के विरोध में आ गए और उन्होंने अंग्रेजी हुकूमत से देश को आजाद करवाने का प्रण ले लिया. हजारों सैनिकों ने इस प्रण को निभाते हुए अपनी जान दे दी. यह विद्रोह मेरठ से शुरू होकर बरेली और दिल्ली में भी पहुंचा. हालांकि संपूर्ण भारत से तो अंग्रेजी सरकार को नहीं हटाया जा सका लेकिन झांसी समेत कई राज्यों से अंग्रेजों को हटा दिया गया. इस विद्रोह के बाद झांसी की रानी लक्ष्मीबाई ने दोबारा अपने राज्य पर नियंत्रण प्राप्त कर लिया और अपने राज्य को अंग्रेजों से बचाने के लिए भी हरसंभव प्रयत्न किए. मार्च 1858 में सर ह्यूरोज को झांसी की रानी को जिंदा गिरफ्तार करने के उद्देश्य से झांसी भेजा गया. ह्यूरोज ने लक्ष्मीबाई को आत्मसमर्पण करने का आदेश दिया लेकिन लक्ष्मीबाई ने अपनी झांसी को बचाने के लिए अकेले जंग का ऐलान कर दिया. लगातार तीन दिनों तक गोलीबारी होने के बावजूद अंग्रेजी सेना किले तक नहीं पहुंच पाई. जिसके परिणामस्वरूप ह्यूरोज ने पीछे से वार करने का निर्णय लिया. विश्वासघात का सहारा लेकर ह्यूरोज और उसकी सेना 3 अप्रैल को किले में दाखिल हो गई. अपने बारह वर्ष के बेटे को पीठ पर बांधकर लक्ष्मीबाई किले से बाहर निकल गईं.
कालपी की लड़ाई
जब ह्यूरोज ने झांसी के किले पर कब्जा जमा लिया तब अपनी जान बचाने के लिए लक्ष्मीबाई को वहां से भागना ही पड़ा. लगातार चौबीस घंटे का सफर और 102 किलोमीटर का सफर तय करने के बाद लक्ष्मीबाई कालपी पहुंची. कालपी के पेशवा ने स्थिति का आंकलन कर लक्ष्मीबाई की सहायता करने का निर्णय लिया. पेशवा ने रानी को जरूरत के अनुसार अपनी सेना और हथियार देने का फैसला किया. 22 मई को ह्यूरोज ने कालपी पर आक्रमण कर दिया. इस आक्रमण का सामना झांसी की रानी ने पूरी दृड़ता से किया. यहां तक कि ब्रिटिश सेना भी उनके इस आक्रमण से घबरा गई थी. लेकिन दुर्भाग्यवश 24 मई को ह्यूरोज ने कालपी पर अधिकार कर लिया. राव साहेब पेशवा, तात्यां टोपे और लक्ष्मी बाई ने ग्वालियर जाने का फैसला किया, लेकिन ग्वालियर के राजा अंग्रेजों के साथ थे. लक्ष्मी बाई ने युद्ध कर राजा को हरा दिया और किला पेशवा को सौंप दिया.
स्वतंत्रता के लिए प्राणों का बलिदान
17 जून को ह्यूरोज ने ग्वालियर पर कब्जा कर लिया. लेकिन झांसी की रानी ने आत्म-समर्पण का रास्ता ना चुन कर सेना का सामना करने का निश्चय किया. झांसी की रानी अपने घोड़े पर नहीं बल्कि किसी और घोड़े पर बैठ कर युद्ध लड़ रही थीं. वह पुरुषों के कपड़े में थीं इसीलिए घायल होने के बाद उन्हें कोई पहचान नहीं पाया. लक्ष्मीबाई के विश्वसनीय सहायक उन्हें लेकर पास के एक वैद्य के पास ले गए और उन्हें गंगाजल पिलाया गया. रानी लक्ष्मीबाई की अंतिम इच्छा थी कि उनके शव को कोई भी अंग्रेज हाथ ना लगा पाए. 23 वर्ष की छोटी सी आयु में ही लक्ष्मीबाई ने अपने प्राणों की आहुति दे दी. कुछ समय पश्चात उनके पिता मोरोपंत तांबे को भी अंग्रेजों द्वारा फांसी दे दी गई. लक्ष्मीबाई के दत्तक पुत्र दामोदर राव अपनी मां के सहायकों के साथ वहां से भाग गए. हालांकि उन्हें कभी उत्तराधिकार नहीं मिला लेकिन अंग्रेजों ने उन्हें पेंशन देने की व्यवस्था की थी. दामोदर राव इन्दौर में जाकर रहने लगे. 28 मई, 1906 को 58 वर्ष की उम्र में दामोदर राव का भी निधन हो गया. उनके वंशजों ने उपनाम के रूप में झांसीवाले ग्रहण किया.
रानी लक्ष्मीबाई एक वीर और साहसी महिला थीं. भले ही उनकी उम्र ज्यादा नहीं थी लेकिन उनके निर्णय हमेशा परिपक्व हुआ करते थे. अंतिम श्वास तक वह अंग्रेजों से लोहा लेती रहीं. उन्होंने स्वतंत्रता के लिए प्रायसरत लोगों के लिए एक आदर्श उदाहरण पेश किया था. ह्यूरोज जो उनके शत्रु से कम नहीं थे, ने स्वयं यह स्वीकार किया था कि उन्होंने जितने भी विरोधियों का सामना किया उनमें सबसे अधिक खतरा उन्हें लक्ष्मी बाई से ही था. वह सबसे अधिक साहसी और दृढ़ निश्चयी थीं.