धार।धार में बुजुर्ग के निधन के बाद अनोखे अंदाज में अंतिम विदाई दी गई। अंतिम यात्रा में शामिल लोग ढोलक की थाप पर नृत्य करते हुए मुक्तिधाम तक पहुंचे। जिन्होंने अर्थी को कंधा दे रखा था, वे भी नृत्य कर रहे थे। अंतिम संस्कार की यह परंपरा धार जिले के तिरला ब्लॉक के भुवादा गांव में निभाई गई। गांव में बुजुर्ग के निधन को उत्सव की तरह मनाया जाता है। गांव के 103 साल के बुजुर्ग जामु भंवर (जामसिंह) की रविवार को मौत हो गई। उन पर कुछ दिन पहले बैल ने हमला कर दिया था। हमले में घायल जामु उम्रदराज होने से रिकवर नहीं कर पाए। घर पर ही अंतिम सांस ली। बुजुर्ग की अंतिम यात्रा गांव से निकाली गई। श्मशान घाट तक अंतिम यात्रा में मृदंग, झांझ और ढोलक को बजाया गया।
सामाजिक कार्यकर्ता विजय चोपड़ा ने बताया कि आदिवासी समाज की यह ऐतिहासिक प्रथा है। समाज उम्रदराज व्यक्ति के पंचतत्व में विलीन होने पर उसे उत्सव के रूप में मनाता है। यह प्रथा कालांतर से चली आ रही है। अंतिम यात्रा के समय घर में रखा अनाज, कुल्हाड़ी, तांबे की थाली, लोटा और चांदी के गहने अर्थी के साथ रखे जाते हैं।ऐसे मृतक को बंधनों से किया जाता है मुक्त दाह संस्कार के समय अर्थी के चार फेरे उल्टे लेकर सभी गांठों को कुल्हाड़ी से काटकर मृतक को सभी बंधन से मुक्त किया जाता है। दाह संस्कार पूर्ण रूप से आदिवासी संस्कृति अनुसार किया जाता है। दाह संस्कार के तत्काल बाद तरत (तीरथ) भोज कराया जाता है। यह आटे और गुड़ से बना होता है।
महुआ के अर्क की धार देकर अंतिम विदाई चोपड़ा के अनुसार नुकता घाटा (भोज) अपनी सुविधा अनुसार किया जाता है। 12 दिन बाद करने का कोई रीति-रिवाज नहीं है, इसकी अवधि निश्चित नहीं है। परंपरानुसार नुकते घाटे का कार्यक्रम गांवों में तड़वी, पटेल, बुजुर्गों द्वारा किया जाता है। नुकता के पश्चात गाता स्थापित करने की परंपरा भी आदिवासियों में है।जिसे हम खत्री बाबा/पूर्वज के रूप में आदिवासी परंपरा के तहत महुए की शराब की धार, मुर्गा और बकरा चढ़ाकर पूजते हैं। इसी तरह, महुआ के अर्क की धार देकर अंतिम विदाई दी जाती है। समाज की महिलाओं द्वारा जीव वाल्वना की पूरी गाथा का वर्णन मौखिक गीतों के जरिए किया जाता है। इसका वर्णन दुनिया की किसी भी पुस्तक में नहीं मिलेगा।