डेस्क: दक्षिण एशिया में पिछले दो वर्षों में दो पड़ोसी देशों ने ऐसी घटनाओं का सामना किया है जिसने उनकी राजनीतिक स्थिरता को हिला कर रख दिया है। पहले 2022 में श्रीलंका और अब 2024 में बांग्लादेश, दोनों देशों में अचानक भड़की जनआक्रोश की आग ने सत्ता के गलियारों में उथल-पुथल मचा दी। दोनों देशों में हालात इतने बेकाबू हुए कि सत्ताधारी नेताओं को देश छोड़कर भागना पड़ा।
श्रीलंका की कहानी:
श्रीलंका में 8 जुलाई 2022 को एक ऐतिहासिक घटना घटी। देश में गहराए आर्थिक संकट के चलते सरकार ने दिवालिया होने की घोषणा कर दी थी। इस घोषणा के बाद देशभर में लोग सड़कों पर उतर आए। हजारों की संख्या में प्रदर्शनकारी राजधानी कोलंबो में इकट्ठे हुए और राष्ट्रपति गोटबाया राजपक्षे के सरकारी आवास को घेर लिया। “गोटा-गो-गामा” यानी “गोटबाया अपने गांव जाओ” के नारे चारों ओर गूंजने लगे।
प्रदर्शनकारियों का गुस्सा इतना बढ़ गया कि उन्होंने राष्ट्रपति भवन पर कब्जा कर लिया। इस दौरान राष्ट्रपति गोटबाया राजपक्षे को देश छोड़कर भागने पर मजबूर होना पड़ा। राष्ट्रपति भवन के अंदर के दृश्यों ने पूरी दुनिया को चौंका दिया, जहां लोग राष्ट्रपति के कमरों में आराम कर रहे थे और स्विमिंग पूल में नहाते नजर आ रहे थे। यह घटना श्रीलंका के इतिहास में एक महत्वपूर्ण मोड़ साबित हुई, जिसने देश की राजनीतिक परिदृश्य को पूरी तरह बदल दिया।
बांग्लादेश में उथल-पुथल:
8 जुलाई 2022 की घटना के दो साल बाद, 5 अगस्त 2024 को बांग्लादेश भी ऐसी ही स्थिति का सामना कर रहा है। बांग्लादेश में पिछले दो महीनों से आरक्षण विरोधी आंदोलन चल रहा था, जो धीरे-धीरे बेकाबू हो गया। जब 24 घंटों के भीतर 100 से अधिक लोगों की मौत हुई, तो प्रदर्शनकारियों का गुस्सा सड़कों पर फूट पड़ा। करीब 4 लाख लोग ढाका की सड़कों पर उतर आए।
हिंसा, आगजनी और तोड़फोड़ की घटनाओं के बीच प्रदर्शनकारी प्रधानमंत्री आवास में घुस गए। हालात ऐसे बने कि प्रधानमंत्री शेख हसीना को इस्तीफा देकर देश छोड़ना पड़ा। उन्होंने पहले भारत में शरण ली, और बाद में उनके लंदन या फिनलैंड में शरण लेने की खबरें सामने आईं। इस घटनाक्रम ने बांग्लादेश में गहरा राजनीतिक संकट पैदा कर दिया है, जिसकी गूंज दूर-दूर तक सुनाई दे रही है।
दोनों देशों में समानता:
श्रीलंका और बांग्लादेश के बीच भले ही भौगोलिक दूरी हो, लेकिन दोनों देशों के तख्तापलट के हालात में कई समानताएं देखने को मिलीं। दोनों ही देशों में जनता का गुस्सा सड़कों पर उभरा और यह गुस्सा सीधे-सीधे सत्ता के खिलाफ केंद्रित हो गया। आर्थिक संकट और सरकार की नीतियों के प्रति नाराजगी ने जनता को ऐसा करने पर मजबूर किया।
दोनों ही घटनाओं में सत्ताधारी नेताओं को देश छोड़कर भागना पड़ा, जो एक बड़ा राजनीतिक संकेत है। ये घटनाएं यह दर्शाती हैं कि जब जनता का धैर्य जवाब दे जाता है, तो वह किसी भी हद तक जा सकती है। दक्षिण एशिया के इन दो देशों में घटित ये घटनाएं पूरे क्षेत्र के लिए एक सबक हैं और बताती हैं कि लोकतांत्रिक संस्थाओं और आर्थिक स्थिरता की आवश्यकता कितनी महत्वपूर्ण है।
श्रीलंका में तो राजनीतिक स्थिरता की प्रक्रिया धीरे-धीरे बहाल हो रही है, लेकिन बांग्लादेश के हालात फिलहाल चिंताजनक बने हुए हैं। इस संकट से उबरने के लिए बांग्लादेश को न केवल राजनीतिक स्थिरता की जरूरत है, बल्कि सामाजिक और आर्थिक सुधारों की भी आवश्यकता होगी। दक्षिण एशिया के लिए यह समय आत्मनिरीक्षण और ठोस नीतियों पर काम करने का है, ताकि भविष्य में ऐसे हालातों से बचा जा सके।
इन घटनाओं ने यह भी साबित कर दिया है कि जनता की आवाज को नजरअंदाज करना किसी भी सरकार के लिए घातक साबित हो सकता है। अब देखना यह है कि बांग्लादेश इस संकट से कैसे निपटता है और उसकी राजनीतिक व्यवस्था में क्या बदलाव आते हैं।