الرئيسية प्रमुख खबरें चीन की विस्तारवादी सोच सत्तर साल पुरानी,अब LAC पर डरा हुआ है

चीन की विस्तारवादी सोच सत्तर साल पुरानी,अब LAC पर डरा हुआ है

LAC

LAC (भारत-चीन सीमा) के बीच जारी विवाद अब गहरे तनाव में तब्दील हो चुका है। लेकिन देश में मौजूद दूसरे मुद्दों की तरह लोगों का एक बड़ा तबका आधी अधूरी जानकारियों के आधार पर अपनी राय दूसरों पर थोपने की कोशिश कर रहा हैं। ऐसा करने वालों में देश के कई जिम्मेदार दल भी हैं जिनके कुछ नेता प्रधानमंत्री को घेरने के फेर में ऐसी बयानबाजी करते दिख रहे हैं जिससे यह आभास होता है कि मानों वह देश हित की चिंता करने के बजाए पड़ोसी देश चीन के हौसलों को बढ़ा रहे हैं। उसकी कठपुतली बन गए हैं।

 

चीन की दूसरे देशों में घुसने की आदत पुरानी है। चीन की सरहद 14 देशों से लगती है. लेकिन उसका सीमा विवाद 21 देशों के साथ बीते सत्तर सालों में साथ-साथ चलता आया है। इनमें सबसे बड़ा विवाद भारत, डापान, दक्षिण कोरिया, ताईवाान, रूस, मंगोलिया, तिबत , भूटान, नेपाल और हांगकांग के साथ चलता आया है। जहां भारत का सवाल है तो इतिहास में पहली बार चीन का इस तरह प्रतिकार भारतीय सेना की तरफ से हो रहा है चीन के हौसले बढऩे की पृष्ठभूमि में झांकने की कोशिश करें तो कई कारक और कारण नजर आते हैं। आजादी के तुरंत बाद से ही भारत के पाकिस्तान से संबंध खराब हो गए थे। खूनखराबा तो भारत -पाक विभाजन के साथ ही शुरू हो गए थे। और चंद महीनों बाद ही कश्मीर में घुसपैठ खत्म करने के लिए उससे युद्ध करना पड़ा। भारतीय सेना ने पूरी कामयाबी के साथ हमारा जो इलाका पीओके के नाम से जाना जाता है, उसको पूरी तरह से मुत कराने की तरफ बढ़चुका था लेकिन तभी भारत के राजनीतिक नेतृत्व ने कतिपय निहित स्वार्थों की खातिर भारतीय सेना के आक्रामक रूख पर लगाम लगा दी और संयुत राष्ट्र की अदालत में पाक के बजाए हम खुद चले गए। यूएन ने हस्तक्षेप करके युद्ध रूकवा दिया और आज भी हम पीओके नाम के नासूर को झेल रहे हैं। पाकिस्तान से खराब संबंधों के चलते भारत ने रूस के साथ ही चीन से भी संबंध अच्छे रखने की पहल की। दोस्ती की इस इकतरफा पहल के चलते ही ताईवान से अलग होकर बने चीन को भारत ने सबसे पहले कम्युनिस्ट देश के बतौर मान्यता दी। यही नहीं भारत ने संयुत राष्ट्र की सुरक्षा परिषद की स्थाई सीट के आफर को ठुकराते हुए चीन का नाम आगे किया। लेकिन विडम्बना देखिए कि आज वही चीन बरसों से भारत को सुरक्षा परिषद में स्थाई सदस्यता मिलने से रोकने के लिए अपने वीटो का इस्तेमाल कर रहा है। वह पाकिस्तान का मददगार बनकर भारत के प्रयासों को अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर नाकाम करने की हरसंभव कोशिश में लगा रहता है। भारत को शुरू से ही दो चीन वाली नीति पर चलना था। लेकिन चीन की अंधभति में हमने ताईवान से भी संबंध विच्छेद कर लिए थे। भारतीय नेतृत्व और उसके कूटनीतिक सलाहकारों ने हमारी स्थिति न खुदा मिला न विसाल सनम वाली कर दी। जिस तरह बीते पांच सालों में नरेंद्र मोदी ने शी जिनपिंग के साथ डेढ़ दर्जन बार मुलाकात करके भारत-चीन संबंध सुधारने की कोशिश की ,कमोबेश वैसे ही प्रयास हमारे प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने माओ के साथ पंचशील के सिद्धांत के तहत हिंदी चीनी भाई भाई का नारा बुलंद किया था। लेकिन नतीजा या हुआ? धोखा और सिर्फ धोखा। चीन ने भारत से एक तरफ दोस्ती गांठने का ढोंग किया और दूसरी तरफ उसने भारत और चीनी सीमा के बीच बसे शांतिप्रिय देश तिबत को अपना इलाका बताते हुए हड़प लिया। भारत में घुसपैठ की मंशा को अंजाम देने वाला चीन का यह पहला कदम था। इसके साथ ही भारत और चीन के बीच के तिबत का बफर स्टेट खत्म हो गया और अरूणाचल, सिकिम से लेकर हिमाचल और लद्दाख की सीमा तक चीनी फौज की सीधी तैनाती हो गई। दुर्भाग्य की बात तो यह है कि अपने सिर पर सीधा खतरे की अनदेखी करते हुए भारतीय नीतिकारों ने तिबत को चीन की हिस्सा मानने में सबसे पहले पहल करके आत्मघाती कदम उठा लिया। लेकिन तीन साल के भीतर ही भारत सरकार ने तिबत से निष्कासित दलाईलामा को भारत में शरण देकर चीन की दुश्मनी मोल ले ली। 

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