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Wednesday, October 16, 2024

रावण दहन से पहले होता है हिरण्यकश्यप का वध, 400 साल पुरानी परंपरा

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खरगोन: मध्य प्रदेश के खरगोन जिले में दशहरा का पर्व एक अनोखी और प्राचीन परंपरा के साथ मनाया जाता है, जो 406 साल से चली आ रही है। यहां के भावसार समाज द्वारा दशहरा तभी मनाया जाता है, जब भगवान नरसिंह द्वारा हिरण्यकश्यप का वध किया जाता है। यह विशेष आयोजन हर साल नवरात्रि की अष्टमी और नवमी की रात को होता है और इस परंपरा को देखने के लिए सैकड़ों लोग जुटते हैं।

406 साल पुरानी परंपरा की शुरुआत

खरगोन के भावसार समाज ने इस अनूठी परंपरा की शुरुआत 406 साल पहले की थी। यहां नवरात्रि के दौरान मां अंबे और मां महाकाली की सवारी खप्पर (तांबे का पात्र) में निकलती है। अष्टमी और नवमी की मध्य रात्रि से लेकर सुबह तक चलने वाली इस सवारी में समाज के लोग देवी-देवताओं का रूप धारण करते हैं और गरबा खेलते हैं। इस आयोजन का मुख्य आकर्षण भगवान नरसिंह द्वारा हिरण्यकश्यप का वध होता है, जिसके बाद ही दशहरा मनाया जाता है।

मां अंबे और महाकाली की सवारी

अष्टमी की रात मां अंबे की सवारी शेर पर निकलती है, और नवमी की रात मां महाकाली की सवारी होती है। सवारी ब्रह्म मुहूर्त में भगवान नरसिंह की सवारी से संपन्न होती है। जब भगवान नरसिंह हिरण्यकश्यप का वध करते हैं, तभी दशहरा का पर्व मनाने की शुरुआत होती है। यह आयोजन नवमी की रात 2 बजे से लेकर सुबह 5 बजे तक चलता है।

समाज के बुजुर्गों की धरोहर

खप्पर समिति के अध्यक्ष मोहन भावसार के अनुसार, यह परंपरा उनके पूर्वजों द्वारा शुरू की गई थी, जिसे आज भी समाज के लोग पूरी श्रद्धा और भक्ति के साथ निभा रहे हैं। देशभर में रावण दहन करके दशहरा मनाया जाता है, लेकिन खरगोन में रावण दहन से पहले हिरण्यकश्यप का वध किया जाता है, जो इस परंपरा को खास और अनोखा बनाता है।

इस साल का आयोजन

इस साल यह आयोजन 10 और 11 अक्टूबर की रात को संपन्न हुआ। गुरुवार 10 अक्टूबर की रात झाड़ पूजन के बाद पहले भगवान गणेश की सवारी निकली, और फिर शेर पर सवार होकर मां अंबे प्रकट हुईं। शुक्रवार 11 अक्टूबर की रात मां महाकाली की सवारी निकली, और सुबह ब्रह्म मुहूर्त में भगवान नरसिंह ने हिरण्यकश्यप का वध किया। इसके बाद खरगोन के लोग दशहरा मनाने की शुरुआत करेंगे।

दशहरे की खासियत

खरगोन के इस प्राचीन आयोजन की खास बात यह है कि दशहरा तब तक नहीं मनाया जाता जब तक कि भगवान नरसिंह हिरण्यकश्यप का वध नहीं करते। यह परंपरा और उत्सव देश में शायद ही कहीं और देखने को मिले। भावसार समाज ने इसे अपनी पहचान और धरोहर के रूप में संभाल कर रखा है, और हर साल इस अनोखे पर्व को बड़े धूमधाम और श्रद्धा के साथ मनाया जाता है।

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