गहलोत के बाद पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह भी अध्यक्ष पद के लिए पीछे हटे

भोपाल। पहले अशोक गहलोत आगे आए। राजस्थान की कुर्सी का मोह था। फटकार पड़ी तो फिर पीछे हटे। केरल से दिग्विजय सिंह आए। दो-तीन दिन माहौल बनाया। फिर ऐन वक्त पर पीछे हट गए। अब मल्लिकार्जुन खरगे का नाम आगे किया जा रहा है। लेकिन, यह समझ नहीं आता कि कांग्रेस के अध्यक्ष के चुनावों में ऐसा क्या है, जो गांधी परिवार के बाहर का कोई भी नेता खुद होकर अध्यक्ष नहीं बनना चाहता।अगर आप कांग्रेस और उसके अध्यक्ष की बात करेंगे तो गांधी परिवार के बिना उसकी कल्पना करना बेमानी ही होगा। इतिहास ही कुछ ऐसा है कि आजादी के बाद से कांग्रेस और उसके अध्यक्ष की कुर्सी पर या तो नेहरू-गांधी परिवार का व्यक्ति बैठा है या उनका विश्वासपात्र। अगर राहुल गांधी ने 2019 में पार्टी अध्यक्ष की कुर्सी को ठोकर मार दी तो यह समझना मुश्किल नहीं है कि यह कुर्सी कांटों से भरी रहने वाली है। जो भी व्यक्ति इस पर बैठेगा, वह कांटों का ताज पहनेगा। ऊपर से आलाकमान (सोनिया गांधी, राहुल गांधी और प्रियंका गांधी) तो रहेंगे ही। कुछ गड़बड़ की तो जी-23 जैसे वरिष्ठ नेताओं का एक पूरा गुट है जो कागज और कलम लेकर ही बैठा है

 

 

 

पार्टी के इतिहास की बात करें तो आजाद भारत में कांग्रेस ने अब तक 18 अध्यक्ष देखे हैं। इस दौरान 75 में से 40 साल नेहरू-गांधी परिवार का सदस्य ही पार्टी का अध्यक्ष रहा है। इसके अलावा जो 35 साल है, उसमें भी गैर-गांधी अध्यक्ष के कार्यकाल में गांधी परिवार का सदस्य प्रधानमंत्री रहा है। भले ही खरगे अध्यक्ष बन जाए, हकीकत तो यह है कि उनके लिए सबसे बड़ी मुश्किल पार्टी के अन्य नेताओं को एक संगठन के तौर पर साथ लाने की। अब तक यह जिम्मा गांधी परिवार के कंधे पर ही रहा है।इतिहास कहता है कि गांधी परिवार के संरक्षण के बिना कोई अध्यक्ष टिक नहीं सका है। ऐसे में जो भी अध्यक्ष बनेगा, उसे सोनिया, राहुल और प्रियंका गांधी की हर बात को शिरोधार्य मानकर पालन करना होगा। ऐसे में उसके पास रह ही क्या जाएगा। न तो वह अपने खुद के फैसले ले सकेगा और न ही पार्टी को नई दिशा और दशा देने में कामयाब हो सकेगा।

 

 

दरअसल, बात ऐसी है कि मौजूदा कालखंड कांग्रेस के लिए सबसे परेशानी वाला है। पहल बार पार्टी आठ साल से सत्ता से दूर है। इससे पहले भी वह सत्ता से दूर रही है, लेकिन इतना लंबा समय उसे सत्ता से दूर कभी नहीं रहना पड़ा। 1989 से 1991 तक या 1977 से 1980 तक की अवधि ही ऐसी थी, जब कांग्रेस सत्ता से दूर रही। इसके बाद 1999 से 2004 तक सत्ता से कांग्रेस दूर रही थी। और इस समय 2014 से कांग्रेस सत्ता से दूर है। यानी आठ साल हो गए हैं। ऐसा कांग्रेस के साथ पहले कभी नहीं हुआ।

 

सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि जब भी गैर-गांधी कांग्रेस अध्यक्ष ने अपने मन की करनी चाही, उसे हाशिये पर पटक दिया गया। 1969 में इंदिरा गांधी ने राष्ट्रपति पद के निर्दलीय उम्मीदवार वीवी गिरी को जिताया और पार्टी के उम्मीदवार नीलम संजीव रेड्डी को हरवाया। 1977 में इमरजेंसी के बाद पार्टी हारी तो ब्रह्मानंद रेड्डी और वायबी चव्हाण ने इंदिरा के खिलाफ आक्रोश व्यक्त किया। तब भी पार्टी टूटी और वजह इंदिरा गांधी ही थीं। फिर 1997 की यादें तो कई नेताओं के जेहन में आज भी जिंदा हैं। माधवराव सिंधिया, राजेश पायलट, नारायण दत्त तिवारी, अर्जुन सिंह, ममता बनर्जी, जीके मूपनार, पी चिदंबरम और जयंती नटराजन ने उस समय के कांग्रेस अध्यक्ष सीताराम केसरी के खिलाफ माहौल बनाया था। केसरी को तो उठाकर बाहर फिंकवा दिया गया था। यह सब सोनिया गांधी को अध्यक्ष बनाने के लिए किया गया था। लिहाजा, नए अध्यक्ष के लिए हमेशा डर की बात यह होगी कि अगर उसने गांधी परिवार के साथ सामंजस्य नहीं बिठाया तो रातोंरात उसे हटाने में पार्टी देर नहीं करेगी।

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